देश से जाति और धर्म आधारित राजनीति को खत्म करने की आवश्यकता है।
दिल की आवाज़ कलम से
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विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में आगामी लोक-सभा चुनाव की सरगर्मियाँ परवान चढ़ने को है। सभी छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ भिन्न-भिन्न वर्गों को लुभाने में जुटी हुई है। हर बार की भाँती इस बार भी सभी मतदाताओं को एक से बढ़कर एक लोक-लुभावन वादों का स्वाद चखाया जा रहा है। इतना ही नहीं सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों द्वारा जाती और धर्म को एक बहुत बड़ा चुनावी मोहरा बनाकर पेश किया जा रहा है।
भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि यहाँ की आधी से भी ज्यादा आबादी, जाति और धर्म के आधार पर वोट करती है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि 64 साल के गणतंत्र के बाद भी आखिर क्या कारण है कि भारत से जाति और धर्मं पर आधारित राजनीति खत्म नहीं हो पा रही है। इसके लिए अगर कोई ज़िम्मेदार है तो “मतदाताओं की सोच”।
ख़ास कर ग्रामीण क्षेत्रों के मतदाता लोग इस तरह की मानसिकता से पीड़ित है। एक तो उनके अंदर जागरूकता और सही जानकारियों का अभाव होता है और उनकी इन्ही कमज़ोरियों का फायदा उठाकर राजनीतिक दल उन्हें जाति और धर्मं के आधार पर विभाजित कर अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेकते रहतें हैं। शहरी क्षेत्रों में भी ऐसी समस्या है किंतु उसका अनुपात काफ़ी हद तक कम है। कभी-कभी ऐसी स्थिति पैदा कर दी जाती है कि ना चाहते हुए भी लोग धर्मं और जाती के आधार पर वोट करने को मज़बूर हो जाते हैं। चुनाव से पहले राजनीतिक पार्टियाँ अपने मेनिफेस्टों में कुछ इस तरह की लोक-लुभावन वादें कर देती है,जिसका लाभ किसी एक धर्मं या सम्पर्दाय के ही लोगों को मिलता है ,ऐसे में उस धर्मं या समपर्दाय के लोगों का वोट उस राजनीतिक दल को ही जाना तय हो जाता है। और ऐसी स्थिति लोकतंत्र की परिभाषा में दरार पैदा करती है।
यदि सही मायने में देखें तो राजनीतिक दलों के बीच प्रतिस्पर्धा विकास के आधार पर होनी चाहिए,तभी सही मायने में लोकतंत्र भी परिभाषित होगा और लोगों की भलाई भी सही मायने में होगी। मतदाताओं को भी ये सुनिश्चित करना ही होगा कि वो हर हाल में वैसी पार्टी को ही चुनेगें ,जो विकास की राजनीती करतें हैं। महज़ वोट बैंक की राजनीती करने वाले उन तमाम दलों को बाहर का रास्ता दिखाना ही होगा। सभी मतदाताओं को जाति,धर्मं और सम्पर्दाय से उपर उठकर देश के लिये सोचना होगा। हमसब पहले भारतवासी है,फिर एक हिन्दू,मुस्लिम या फ़िर कुछ और हैं। इसलिए हमसबों को एकजुट होकर एक राष्ट्रव्यापी आवाज़ उठाने की आवश्यकता है।
तो आज सपथ लेते हैं कि आगामी लोक-सभा चुनाव में जाती और धर्म से उपर उठकर अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगें। हमसब देश के भाग्य-विधाता, देश की अखंडता और अस्मिता को बनाये रखने के लिए हमेशा तत्पर रहेंगें।
जय हिन्द,जय भारत।
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में आगामी लोक-सभा चुनाव की सरगर्मियाँ परवान चढ़ने को है। सभी छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ भिन्न-भिन्न वर्गों को लुभाने में जुटी हुई है। हर बार की भाँती इस बार भी सभी मतदाताओं को एक से बढ़कर एक लोक-लुभावन वादों का स्वाद चखाया जा रहा है। इतना ही नहीं सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों द्वारा जाती और धर्म को एक बहुत बड़ा चुनावी मोहरा बनाकर पेश किया जा रहा है।
भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि यहाँ की आधी से भी ज्यादा आबादी, जाति और धर्म के आधार पर वोट करती है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि 64 साल के गणतंत्र के बाद भी आखिर क्या कारण है कि भारत से जाति और धर्मं पर आधारित राजनीति खत्म नहीं हो पा रही है। इसके लिए अगर कोई ज़िम्मेदार है तो “मतदाताओं की सोच”।
ख़ास कर ग्रामीण क्षेत्रों के मतदाता लोग इस तरह की मानसिकता से पीड़ित है। एक तो उनके अंदर जागरूकता और सही जानकारियों का अभाव होता है और उनकी इन्ही कमज़ोरियों का फायदा उठाकर राजनीतिक दल उन्हें जाति और धर्मं के आधार पर विभाजित कर अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेकते रहतें हैं। शहरी क्षेत्रों में भी ऐसी समस्या है किंतु उसका अनुपात काफ़ी हद तक कम है। कभी-कभी ऐसी स्थिति पैदा कर दी जाती है कि ना चाहते हुए भी लोग धर्मं और जाती के आधार पर वोट करने को मज़बूर हो जाते हैं। चुनाव से पहले राजनीतिक पार्टियाँ अपने मेनिफेस्टों में कुछ इस तरह की लोक-लुभावन वादें कर देती है,जिसका लाभ किसी एक धर्मं या सम्पर्दाय के ही लोगों को मिलता है ,ऐसे में उस धर्मं या समपर्दाय के लोगों का वोट उस राजनीतिक दल को ही जाना तय हो जाता है। और ऐसी स्थिति लोकतंत्र की परिभाषा में दरार पैदा करती है।
यदि सही मायने में देखें तो राजनीतिक दलों के बीच प्रतिस्पर्धा विकास के आधार पर होनी चाहिए,तभी सही मायने में लोकतंत्र भी परिभाषित होगा और लोगों की भलाई भी सही मायने में होगी। मतदाताओं को भी ये सुनिश्चित करना ही होगा कि वो हर हाल में वैसी पार्टी को ही चुनेगें ,जो विकास की राजनीती करतें हैं। महज़ वोट बैंक की राजनीती करने वाले उन तमाम दलों को बाहर का रास्ता दिखाना ही होगा। सभी मतदाताओं को जाति,धर्मं और सम्पर्दाय से उपर उठकर देश के लिये सोचना होगा। हमसब पहले भारतवासी है,फिर एक हिन्दू,मुस्लिम या फ़िर कुछ और हैं। इसलिए हमसबों को एकजुट होकर एक राष्ट्रव्यापी आवाज़ उठाने की आवश्यकता है।
तो आज सपथ लेते हैं कि आगामी लोक-सभा चुनाव में जाती और धर्म से उपर उठकर अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगें। हमसब देश के भाग्य-विधाता, देश की अखंडता और अस्मिता को बनाये रखने के लिए हमेशा तत्पर रहेंगें।
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